सोमवार, 9 अगस्त 2010

कविता

उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
वतन के फकीरो का फेरा हुआ है।।
उठो अब निराशा निशा खो रही है
सुनहली-सी पूरब दिशा हो रही है
उषा की किरण जगमगी हो रही है
विहंगों की ध्वनि नींद तम धो रही है
तुम्हें किसलिए मोह घेरा हुआ है
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।।
उठो बूढ़ों बच्चों वतन दान माँगो
जवानों नई ज़िंदगी ज्ञान माँगो
पड़े किसलिए देश उत्थान माँगो
शहीदों से भारत का अभिमान माँगो
घरों में दिलों में उजाला हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
उठो देवियों वक्त खोने न दो तुम
जगे तो उन्हें फिर से सोने न दो तुम
कोई फूट के बीज बोने न दो तुम
कहीं देश अपमान होने न दो तुम
घडी शुभ महूरत का फेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।
हवा क्रांति की आ रही ले उजाली
बदल जाने वाली है शासन प्रणाली
जगो देख लो मस्त फूलों की डाली
सितारे भगे आ रहा अंशुमाली
दरख़्तों पे चिड़ियों का फेरा हुआ है।
उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।

सोमवार, 17 मई 2010

गीत

निज गौरव को निज वैभव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये
उपदेश दिया जो गीता में क्यों सुनना सुनाना भूल गये
निज गौरव को निज वैभव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये //1//
रावण ने सिया चुराई थी हनुमत ने लंका जलाई थी
अब लाखों सीता हरी गयी क्यों लंका जलना भूल गये
निज गौरव को निज वैभव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये //2//
गीता का पाठ पढ़ाया था अर्जुन को वीर बनाया था
क्यों रास रचना याद रहा क्यों चक्र चलाना भूल गये
निज गौरव को निज वैभव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये //3//
राणा ने राह दिखाई थी शिवराज ने भी अपनाई थी
जिस राह पे बंदा वीर चला उस राह पे चलना भूल गये
निज गौरव को निज वैभाव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये //4//
केशव की है ललकार यही भारत माता की पुकार यही
जिस गोद में जीवन् पाया है क्यों मान बढ़ाना भूल गये
निज गौरव को निज वैभव को क्यों हिंदू बहादुर भूल गये //5//

मंगलवार, 30 मार्च 2010

कविता

प्रगति का अभिषेक कर नव जागरण का पर्व आया
स्राजन का संदेश लेकर,संक्रमण का पर्व आया |
तोड़ बंधन कर्क का,दिनकर मकर पथ पर चला
प्रखरता रवि रश्मि में है,थिरकती है चंचला |
तोड़ती जड़ता नियती,हिमशित का अवसान है
अलस त्यागो ताम के,क्षरण का है पर्व आया |
देख प्राची के गगन पर,शौर्या का नव-भानु उगता
ले अमिट संकल्प उर में,तरुण हुंकार भरता |
आज जननी का करें,अरि शीश से अभिषेक नूतन
राष्‍ट्र का पौरुष जगा,नव जागरण हा पर्व आया |
कर पुन: तू सिंह गर्जन,हो संगठित बलवान बन
चूर कर दो दर्प अरि का,तू अडिग हिमवान बन |
मेट दो अवशेष माँ के,भाल से परतंत्रता के
वीर तेरे भी विजय के,वरण का पर्व आया ||||