गुरुवार, 18 जुलाई 2013

गुरु दक्षिणा

भारत एक ऐसा गुरुकुल देश है जहां गुरु एवं शिष्य दोनों साधनारत है। भारत को समझना है तो गुरु तत्व को समझना होगा। शिष्य से ज्ञान की अनुभूति भी तभी होती है जब शिष्य गुरु को परिप्रश्न, सेवा तथा प्रणिपात के माध्यम से अपनाता है। प्रणिपात में मन-वचन-कर्म का समर्पण है एवं इस साधना में गुरु के अव्यक्त रुप को अपनाया जाता है। गुरु का सनातन अव्यक्त रुप ही व्यक्ताव्यक्त होकर जीवन चरित्र बनता है। इसको ध्यान में रखते हुए संघ प्रतिष्ठाता डॉ. हेडगेवारजी ने भारत की सनातन संस्कृति के अव्यक्त रुप ‘भगवा ध्वज’ को संघ में गुरु का स्थान दिया तथा प्रणिपात से तन्मय होकर राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव से कार्य करने का मंत्र दिया ‘गुरु’ शब्द से उपजे ‘गुरुपूजन’ एवं ‘गुरु-दक्षिणा’ का भी अपना महत्व है। डॉ. हेडगेवार ने संघ कार्य के प्रचार-प्रसार हेतु कई प्रयोगों के बाद 1928 ई. में गुरु दक्षिणा का आज का प्रचलित स्वरुप प्रारम्भ किया जबकि संघ की स्थापना तो 1925 ई. में हो गई थी। वे स्वयंसेवकों में तेजस्विता निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने संघ को एक बडे परिवार के स्वरुप की दृष्टि दी। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार बच्चे के जन्म होने के साथ ही वह स्वत: आजन्म उस परिवार का सदस्य बन जाता है, उसी प्रकार एक बार ध्वज प्रणाम करने पर व्यक्ति संघ का आजीवन स्वयंसेवक बना रहता है। इसलिए जिस प्रकार किसी परिवार का खर्च कोई चंदे से नहीं बल्कि अपने पुरुषार्थ से चलना चाहिए उसी प्रकार संघरुपी परिवार का खर्च भी उसके स्वयंसेवकों के पुरुषार्थ से चलना चाहिए, तभी स्वयंसेवकों में तेजस्विता आएगी। किन्तु यह समर्पण या यह गुरु-दक्षिणा संघ कार्य के विस्तार हेतू केवल साधन है, साध्य नहीं। यह बात हमें समझनी चाहिए एवं केवल गुरु-दक्षिणा करने मात्र से संघ कार्य पूर्ण नहीं हो जाता। हमारा साध्य है हिन्दू संगठन द्वारा इस राष्ट्र का परम वैभव क्योंकि हिन्दुस्व उस राष्ट्र की आत्मा है। हम सबके पास दो ही आंखे हैं किन्तु इन आंखों में हमें हिन्दू संगठन एवं हिन्दूत्व के आधार पर राष्ट्र के परम वैभव का सपना देना होगा, एक विशेष दृष्टि देनी होगी तभी भारत, भारत रहेगा।