KRISHNA -2
इस ब्लॉग को लिखने का एक ही मकसद है देश भक्ति गीत और संघ के गीतो के माध्यम से हर इंसान के अंदर के भारतीय को जगाना |
गुरुवार, 18 जुलाई 2013
गुरु दक्षिणा
भारत एक ऐसा गुरुकुल देश है जहां गुरु एवं शिष्य दोनों साधनारत है। भारत को समझना है तो गुरु तत्व को समझना होगा। शिष्य से ज्ञान की अनुभूति भी तभी होती है जब शिष्य गुरु को परिप्रश्न, सेवा तथा प्रणिपात के माध्यम से अपनाता है। प्रणिपात में मन-वचन-कर्म का समर्पण है एवं इस साधना में गुरु के अव्यक्त रुप को अपनाया जाता है। गुरु का सनातन अव्यक्त रुप ही व्यक्ताव्यक्त होकर जीवन चरित्र बनता है। इसको ध्यान में रखते हुए संघ प्रतिष्ठाता डॉ. हेडगेवारजी ने भारत की सनातन संस्कृति के अव्यक्त रुप ‘भगवा ध्वज’ को संघ में गुरु का स्थान दिया तथा प्रणिपात से तन्मय होकर राष्ट्र के प्रति समर्पित भाव से कार्य करने का मंत्र दिया ‘गुरु’ शब्द से उपजे ‘गुरुपूजन’ एवं ‘गुरु-दक्षिणा’ का भी अपना महत्व है। डॉ. हेडगेवार ने संघ कार्य के प्रचार-प्रसार हेतु कई प्रयोगों के बाद 1928 ई. में गुरु दक्षिणा का आज का प्रचलित स्वरुप प्रारम्भ किया जबकि संघ की स्थापना तो 1925 ई. में हो गई थी। वे स्वयंसेवकों में तेजस्विता निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने संघ को एक बडे परिवार के स्वरुप की दृष्टि दी। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार बच्चे के जन्म होने के साथ ही वह स्वत: आजन्म उस परिवार का सदस्य बन जाता है, उसी प्रकार एक बार ध्वज प्रणाम करने पर व्यक्ति संघ का आजीवन स्वयंसेवक बना रहता है। इसलिए जिस प्रकार किसी परिवार का खर्च कोई चंदे से नहीं बल्कि अपने पुरुषार्थ से चलना चाहिए उसी प्रकार संघरुपी परिवार का खर्च भी उसके स्वयंसेवकों के पुरुषार्थ से चलना चाहिए, तभी स्वयंसेवकों में तेजस्विता आएगी। किन्तु यह समर्पण या यह गुरु-दक्षिणा संघ कार्य के विस्तार हेतू केवल साधन है, साध्य नहीं। यह बात हमें समझनी चाहिए एवं केवल गुरु-दक्षिणा करने मात्र से संघ कार्य पूर्ण नहीं हो जाता। हमारा साध्य है हिन्दू संगठन द्वारा इस राष्ट्र का परम वैभव क्योंकि हिन्दुस्व उस राष्ट्र की आत्मा है। हम सबके पास दो ही आंखे हैं किन्तु इन आंखों में हमें हिन्दू संगठन एवं हिन्दूत्व के आधार पर राष्ट्र के परम वैभव का सपना देना होगा, एक विशेष दृष्टि देनी होगी तभी भारत, भारत रहेगा।
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
हिंदुत्व के जनक
अन्याय से पूर्ण एक अमरगाथा
यह कहा जाए कि आधुनिक भारतीय इतिहास में जिस महापुरुष के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ, वह सावरकर ही हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सावरकर ‘नाख़ून कटाकर’ क्रन्तिकारी नहीं बने थे। 27 वर्ष की आयु में, उन्हें 50-50 वर्ष के कैद की दो सजाएँ हुई थीं। 11 वर्ष के कठोर कालापानी के सहित उन्होंने कुल 27 वर्ष कैद में बिताए। सन 1857 के विद्रोह को ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली प्रामाणिक पुस्तक सावरकर ने ही लिखी। ब्रिटिश जहाज से समुद्र में छलांग लगाकर, सावरकर ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध, पूरी शक्ति से सावरकर ने ही किया। जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने किया था, वैसा तो कांग्रेस तब क्या, आज भी नहीं कर सकती है।
लेकिन देश उन्हें कैसे याद करता है? भारत रत्न प्राप्त कर चुके 41 महानुभावों के सूचि में वीर सावरकर का नाम नहीं है। उनके जन्मदिन पर संसद में उनके चित्र पर माल्यार्पण करने के लिए सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। सेक्युलरिज्म के स्वयम्भू दूत मणि शंकर अय्यर ने तो सेल्युलर जेल से भी सावरकर की यादों को मिटने का प्रयास किया जहाँ वीर सावरकर ने कालापानी की सजा काटी थी। अपनी चमड़ी बचाने के लिए सावरकर के लंबे और एतिहासिक भाषण के एक वाक्य को उठाकर उन्हें ‘हिन्दू जिन्ना’ बनाने की कोशिश होती रही है और उन्हें विभाजन के लिए भी जिम्मेवार ठहराने की कोशिश होती रहा है। मानो भारतीय जनमानस के ‘स्वयम्भू’ प्रतिनिधि सावरकर ही रहे हों। जबकि सत्य तो यही है कि सावरकर ने अंत तक विभाजन को स्वीकार नहीं किया।
सावरकर को बदनाम करने के निकृष्ट अभियान में भारत के तथाकथित वामपंथी और गांधीवादी बुद्धिजीवियों ने अपूर्व एकता का परिचय दिया। इन बुद्धिजिवियों ने सावरकर पर तीन मुख्य आरोप लगाये: 1) अंग्रेजों से माफ़ी मांगना, 2) दूसरा हिन्दू साम्प्रदायिकता का जनक होना, 3) गांधी के हत्या का षड़यंत्र रचना। आगे हम इन आरोपों की पड़ताल करेंगे…
सावरकर पर पहल आरोप है अंग्रेजों से क्षमा याचना का। यह ठीक है कि जब 1913 में जब गवर्नर-जनरल का प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो सावरकर ने अपनी याचिका पेश की। यह ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्राति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने का और राजभक्ति का आश्वासन दिया लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडोक ने क्या कहा| क्रेडोक ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने ह्रदय परिवर्तन का ढोंग कर रहा है|’ उसने यह भी लिखा कि सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है| भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि भारत भेज दिया गया तो वे उसे भारतीय जेल तोड़कर निश्चय ही छुड़ा ले जाऍंगे| इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक ‘काले पानी’ की महायातना भोगी| यहाँ दो बातें समझना आवश्यक है। पहली यह कि कालापानी की सजा इतनी भयंकर हुआ करती थी कि वहाँ से कोई व्यक्ति जीवित वापस नहीं आता था। सावरकर के आदर्श वीर शिवाजी थे, उन्हें पता था कि राष्ट्र की सेवा के लिए जीवित रहना आवश्यक है। उन्हें यह भी अच्छी तरह पता था कि अंडमान द्वीप से निकलने का एकमात्र रास्ता यह ‘हृदय-परिवर्तन’ ही है। इसलिए उन्होंने यह प्रयास किया यद्यपि असफल रहे।
यदि अंग्रेजों के सामने याचिका प्रस्तुत करना अपराध है तो कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता ऐसा नहीं, जिसने इसका उपयोग नहीं किया हों। जहाँ तक राजभक्ति के आश्वासन की बात है तो गांधीजी ने तो कई बार राजभक्ति की शपथ ली थी और प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार का साथ भी दिया था। जो वामपंथी बुद्धिजीवी सावरकर का उपहास करते रहे हैं उन्हें लेनिन और स्टालिन के कारनामों की जानकारी होनी ही चाहिए।
दूसरा आरोप सावरकर पर, हिन्दुवादी साम्प्रदायिकता के जनक होने का है। पहले तो यह तय हो कि इस धरा पर हिन्दू साम्प्रदायिकता जैसा कुछ है भी या नहीं। संप्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदाय’। अर्थात एक गुरु के द्वारा समूह को सम्यक रूप से प्रदान की गई व्यवस्था को ‘संप्रदाय’ कहते हैं। इस अर्थ में इस्लाम, इसाई, मार्क्सवादी, माओवादी, संप्रदाय हो सकते हैं। हिन्दू समाज के अंदर भी जैन, बौद्ध, सिक्ख, नाथ इत्यादि कई संप्रदाय हैं लेकिन स्वयम हिन्दू समाज ही एक संप्रदाय नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा था कि ‘religion’ को भारतीय सन्दर्भ में धर्मं का समानार्थी बताना बहुत बड़ी भूल थी। ‘religion’, संप्रदाय का समानार्थी शब्द है, धर्मं का नहीं। इस गलत अनुवाद के कारण लोग अब धर्म और संप्रदाय को पर्यायवाची शब्द समझने लगे हैं। मानो ‘धार्मिक होना’ और ‘साम्प्रदायिक होना’ एक ही बात हों।
वीर सावरकर की लिखी एक लघु पुस्तक है ‘हिंदुत्व’। भारतीय जनमानस पर प्रभाव के दृष्टिकोण से देखें तो यह उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना है। यदि प्रति शब्द प्रभाव के गणित से देखा जाए तो ‘हिंदुत्व’ निश्चय ही मार्क्स के ‘कैपिटल’ से अधिक प्रभावशाली पुस्तक प्रमाणित हुई है। ‘हिंदुत्व’ भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करने वाली पहली पुस्तक है। सावरकर के इस निर्मम थे। वे यथासंभव तथ्यपरक बने रहने की कोशिश करते थे। अपने पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सावरकर ने किसी का तुष्टिकरण नहीं किया है बल्कि कटु सत्य बताया है। हाँ, लगभग 90 वर्षों के पश्चात, आज उसमे से कितने तर्क प्रासंगिक रह गए हैं और कितने अप्रासंगिक, यह अलग प्रशन है। उन्होंने आर्यों के मध्य एशिया से भारत में आने की बात कही है क्योंकि उस समय तक यह प्रमाणित नहीं हुआ था कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में एक ही रक्त समूह के लोग बसते हैं और तब तक स्थापित मान्यता यही थी कि भारतीय आर्य बाहर से आये हैं। उन्होंने हिन्दू के परिभाषा में उन सभी संप्रदायों को शामिल किया है जिनकी पुण्यभूमि भारत ही है। लेकिन सावरकर मुसलमानों एवं ईसाईयों को हिन्दू स्वीकार करने से इनकार करते हैं और इसका आधार इनके पुण्यभूमि के भारत से बाहर होना है।
उस समय में जो वैश्विक और विशेषकर भारतीय परिस्थितियां थी उसमे ‘पुण्यभूमि’ के लिए निष्ठा के आगे ‘पितृभूमि’ के लिए निष्ठा नगण्य थी। ‘हिंदुत्व’ सन 1923 में लिखी गयी थी। उस समय खिलाफत आंदोलन चरम पर था। भारत की परतंत्रता के प्रति प्रायः उदासीन रहने वाला मुस्लिम समाज अपने पुण्यभूमि की रक्षा के लिए पूरी तरह उद्वेलित था। कांग्रेस और कांग्रेस के कारण हिंदू समाज भी खिलाफत के समर्थन में खड़ा था। जबकि इस आंदोलन के जोश में मुस्लिम समाज भारत में ही निजाम-ए-मुस्तफा कायम करने पर तुला हुआ था। उसी कालखंड में, केरल के मोपला में हिंदुओं का भीषण संहार हुआ और उनका सामूहिक धर्मान्तरण भी किया गया। उसी दौर में मुस्लिम लीग ने अफगानिस्तान के बादशाह को भारत पर कब्ज़ा करने का निमंत्रण दिया। ऐसे दौर में सावरकर राष्ट्रवाद को भला और कैसे परिभाषित करते? वे ‘इश्वर अल्लाह तेरे नाम’ कैसे गाते जबकि ‘अल्लाह के बंदे’, ‘इश्वर के भक्तों’ को मिटा कर भारत को ‘दारुल इस्लाम’ बनने पर तुले हुए थे? वे उपन्यास नहीं लिख रहे थे वरन भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रहे थे, तो क्या वीर सावरकर कर्णप्रिय मिथ्या लिखते या कटु सत्य? निस्संदेह उन्होंने कटु सत्य चुना। वीर सावरकर ने हिंदुत्व में लिखा भी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में अभिन्न सम्बन्ध होने के बाद भी दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हैं। उन्होंने कई बार पर स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व, हिन्दुइज्म (Hinduism) नहीं है।
तीसरा आरोप है उनपर, महात्मा गांधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल होने का। महात्मा गांधी की हत्या हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता ने की थी। निवर्तमान शासन ने सोचा कि क्यों न एक झटके में ही सभी हिंदुत्व समर्थ शक्तियों को समाप्त कर दिया जाये। इसीलिए गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में वीर सावरकर को भी आरोपी बनाया गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी, सावरकर भी गिरफ्तार हुए और गोलवलकर गुरूजी भी। लेकिन न्यायालय में यह प्रमाणित हुआ कि सावरकर गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल नहीं थे वरन उन्हें गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में आरोपी बनाने का षड़यंत्र हुआ था। सावरकर ससम्मान मुक्त किये गए (लेकिन हमें यही पढाया जाता है कि उन्हें ‘सबूतों के अभाव’ में छोड़ दिया गया। सबूत होने के बाद भी किसी को न्यायलय से मुक्त किया जाता हो तो हमें भी बताया जाए)।
वीर सावरकर के विरुद्ध साजिशकर्ताओं को संभवतः पता रहा हो कि उन्हें सजा देने लायक कोई सबूत नहीं है। लेकिन वे हिंदुत्व के जनक को बदनाम करना चाहते थे। वीर सावरकर का राजनीतिक करियर यहीं समाप्त हो गया और हिंदू महासभा भी पुनः खड़ी नहीं हो सकी। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी ने कहा भी था कि गाँधी हत्या के आरोप के कारण संघ 30 वर्ष पीछे चला गया। वीर सावरकर और आरएसएस पर इस षड़यंत्र में शामिल होने का झूठा आरोप यह प्रमाणित करता है कि ‘गांधीवादियों’ ने गाँधी के चिता के साथ ही गांधीवाद भी जला दिया था।
भारतीय राजनीति में वीर सावरकर कि तुलना महात्मा गाँधी से ही हो सकती है। दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी। इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)। ऐसे में सावरकर गाँधी के तिलिस्म को तोड़ नहीं सके, यद्यपि पढ़े लिखे लोगों के मध्य उनकी स्वीकार्यता अधिक थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर प्रसिद्ध वकील निर्मलचन्द्र चटर्जी तक उनके अनुयायियों में थे (इन्ही निर्मल चंद्र चटर्जी के पुत्र हैं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष- सोमनाथ चटर्जी)।
यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता। वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी, ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी? इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए। वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था।
यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया। सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरन भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।
हिंदुत्व क्या है
मत उलझाओ हिंदुत्व को कट्टरता के तूफ़ानो मे
दफ़न हो चुके है कितने पंथ समय के शमशनो मे
मत उलझाओ हिंदुत्व को कट्टरता के तूफ़ानो मे
तनिक विचारो एक पल सोचो
क्या है हिंदू धर्म का स्वर्णिम इतिहास
ईसाई भी अपने, सिख जैन भी अपने बौध मुस्लिम सब मे है पूरा विश्वास
सरल सामंजस्यमय सुमधुर यह संस्कृति
कण कण मे रमते राम-रहीम जहाँ है समता की स्वीकृति
चिर यौवन हिंदू धर्म सदा पुलकित सदा हर्षित
जैसे सुरभि पावन,शीतल चंदन और पुष्प सुगंधित
तनिक विचारो एक पल सोचो
क्या है हिंदू,हिंदुत्व की क्या है परिभाषा
भ्रातृत्व एकता और विकास किस धर्म की अभिलाषा
हिंदू धर्म नही जीवन जीने का एक सलीका है
सबमे मेल करता हिंदुत्व,मानववाद का एक तरीका है.
ठहरो …..
क्यो हिंदुत्व पर कट्टरता का आरोप लगते हो
वोट बैंक की दूसित प्रवृति क्यो राजनीति चमकाते हो
अरे यह हिन्दुस्तान है…….
मुस्लिम सिख, ईसाई सबको हिंदुत्व ने एक सूत्र मे पिरोया है
जिसने डाली दरार यहाँ पर अपने प्राणो को खोया है
सहम जाओ राजनीति के ठेकेदारो……
पंकज कहे……
सत्य यही है इसे स्वीकारो
धर्म, पंथ मे हिन्दुस्तान को न बंटने देंगे
हिंदुत्व है प्राण भारत की और सभी धर्म है इसकी साँसें
मर जाएँगे पर साँसों को न थमने देंगे.
शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गले में शील की माला पहनकर ज्ञान की कफनी
पकड़कर त्याग का झंडा रखेंगे मान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
जलाकर कष्ट की होली उठाकर ईष्ट की झोली
जमाकर संत की टोली करें उत्थान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
स्वरों में तान भारत की मुखों में आन भारत की
नयन में मूर्ति भारत की नसों में रक्त भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
हमारे जन्म का सार्थक हमारे मोक्ष का कारण
हमारे स्वर्ग का साधन यही उत्थान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गले में शील की माला पहनकर ज्ञान की कफनी
पकड़कर त्याग का झंडा रखेंगे मान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
जलाकर कष्ट की होली उठाकर ईष्ट की झोली
जमाकर संत की टोली करें उत्थान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
स्वरों में तान भारत की मुखों में आन भारत की
नयन में मूर्ति भारत की नसों में रक्त भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
हमारे जन्म का सार्थक हमारे मोक्ष का कारण
हमारे स्वर्ग का साधन यही उत्थान भारत का
बनें हम हिंद के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
सोमवार, 21 नवंबर 2011
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
जर्मन चीन जापान क्या, इटली रूस ईरान क्या
अमरीका यूनान क्या, हर कोई ताबेदार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
दूध दही की धारियाँ न थी चोर चाकारियाँ
सतवंती थी नारियाँ ना कोई व्यभिचार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
घर घर यज्ञ रचाते थे मुहं माँगा फल पाते थे
बादल मेह बरसाते थे न कोई बीमार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
कहीं भी न था शोरासर दुश्मन का भी न था डर
क्रष्न सुदामा सा परस्पर कैसा सुंदर प्यार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
जर्मन चीन जापान क्या, इटली रूस ईरान क्या
अमरीका यूनान क्या, हर कोई ताबेदार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
दूध दही की धारियाँ न थी चोर चाकारियाँ
सतवंती थी नारियाँ ना कोई व्यभिचार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
घर घर यज्ञ रचाते थे मुहं माँगा फल पाते थे
बादल मेह बरसाते थे न कोई बीमार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
कहीं भी न था शोरासर दुश्मन का भी न था डर
क्रष्न सुदामा सा परस्पर कैसा सुंदर प्यार था ||
सब देशों का एक दिन, भारत ये सरदार था
जो भी आया इसकी शरण में, उसका बेड़ा पार था ||
शनिवार, 8 अक्तूबर 2011
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गले में शील की माला पहन कर ज्ञान की पगड़ी
पकड़ कर त्याग का झंडा धरें अभिमान भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
जलाकर स्वार्थ की होली उठाकर निष्ठ की झोली
जमाकर संत की टोली करें उच्चार भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
हमारे जन्म का सार्थक हमारे मोक्ष का कारण
हमारे स्वर्ग का साधन यही उद्धान भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गले में शील की माला पहन कर ज्ञान की पगड़ी
पकड़ कर त्याग का झंडा धरें अभिमान भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
जलाकर स्वार्थ की होली उठाकर निष्ठ की झोली
जमाकर संत की टोली करें उच्चार भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
हमारे जन्म का सार्थक हमारे मोक्ष का कारण
हमारे स्वर्ग का साधन यही उद्धान भारत का
बने हम धर्म के योगी धरेंगे ध्यान भारत का
उठा कर धर्म का झंडा करें उत्थान भारत का
गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी
सदा जो जगाए बिना ही जगा है अंधेरा उसे देखकर ही भगा है
वही बीज पनपा पनपना जिसे था घूना क्या किसी के उगाए उगा है
अगर उग सको तो उगो सूर्य बनकर प्रखरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
सही राह को छोड़ कर जो उड़े हैं वही देख कर दूसरों को कुढ़े हैं
बिना पंख तोले उड़े जो गगन मे न संबंध उनके गगन से जुड़े हैं
अगर उड़ सको तो पखेरू बनो तुम त्वरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
न जो बर्फ की आँधियों से लड़े हैं कभी पग न उनके शिखर पर पड़े हैं
जिन्हें लक्ष्य से कम अधिक प्यार खुद से वही जी चुराकर विमुख हो खड़े हैं
अगर जी सको तो जियो जूझ कर तुम अमरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
सदा जो जगाए बिना ही जगा है अंधेरा उसे देखकर ही भगा है
वही बीज पनपा पनपना जिसे था घूना क्या किसी के उगाए उगा है
अगर उग सको तो उगो सूर्य बनकर प्रखरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
सही राह को छोड़ कर जो उड़े हैं वही देख कर दूसरों को कुढ़े हैं
बिना पंख तोले उड़े जो गगन मे न संबंध उनके गगन से जुड़े हैं
अगर उड़ सको तो पखेरू बनो तुम त्वरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
न जो बर्फ की आँधियों से लड़े हैं कभी पग न उनके शिखर पर पड़े हैं
जिन्हें लक्ष्य से कम अधिक प्यार खुद से वही जी चुराकर विमुख हो खड़े हैं
अगर जी सको तो जियो जूझ कर तुम अमरता तुम्हारे चरण चूम लेगी
न हो साथ कोई अकेले बढ़ो तुम सफलता तुम्हारे चरण चूम लेगी ||
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